Sunday, September 1, 2013

रिश्ते और सामान


अब सामान ही रिश्तों की पहचान हो गए
पापा का शॉल है, ओढ़ता हूं तो पास आ बैठते हैं
बाल पकने लगे तेरे, चिंता कम किया कर... बोलते हैं



हाथ का बुना स्वेटर अब मुझे फिट नहीं होता
हर बरस देखता हूं, इसे छूकर, अब भी नर्म है,
मां ने बुना था बिस्तर पर बीमारी से लड़ते हुए

पुराना धागा है हाथ में, अब तक टूटा नहीं
इस पर उंगलियां फेरता हूं तो बहन हाथ थामती है
भैया इस साल भी नहीं आए, कहकर रूठती है

दीवार पर लगी घड़ी भी सुस्त है अब
बड़े भैया ने दी थी जब वतन से चला था
अब ये वक्त पूछता है, क्यों छोड़ आए सबको?



जो आईना तुमने गोवा से लिया था,
इसमें सीपियों के बीच कुछ खाली जगह है,
याद है तुमने बिंदियां जड़ी हैं इसमें
...अब बुला लो, लौट के आना है

-कुहू

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