Sunday, October 26, 2014




आज फिर....





 

 






नींद पलकों को छूकर गुजरी है अभी 
ख्वाब दहलीज पर ठहरे हैं आज फिर  

 बार बार गिनते रहे गुल्लक के सिक्के लिए 
चाहतें कितनी महंगी निकली हैं आज फिर 

कहना था बहुत तुमसे पर खामोश रह गए 
खुदगर्ज किस्से दिल से ना गए आज फिर 

कहा था बहुत दोस्त ना हों तो अच्छा है 
तन्हा बैठ खुद से ही बातें कीं आज फिर 

-Kuhu 


 

Sunday, April 13, 2014



कुहू डाल पर आई ...


Twitter के पन्ने पर एक नन्ही सी नीली चिड़िया कुहू जाने कब कब चहकी इसका हिसाब किताब ही नहीं रखा गया। किसी ने अचानक पूछ लिया...ये आपने लिखा है? बताएं कब लिखा? जवाब तब मिलता अगर तारीखें याद रखी जातीं। तो कुछ गुणीजनों के कहने पर #Kuhu अपने लिखे के साथ जोड़ना शुरू किया। दो लाइन ....140 वर्णों का एक समूह, जिनमें हर बात को बेहतर तरीके से रखने की कोशिश की। कभी कामयाब हुए तो कभी यूं ही पन्ने पलट लिए गए। अब बिखरी #Kuhu को ब्लॉग पर समेटा जाएगा, शुरूआत आज ही की है...


रात चांदनी से जिरह कर बैठा चांद// जिक्र तुम्हारा था, शर्त मुझ पर रखी गई    #Kuhu 



 ख्वाब सा ख्वाब दिखे, हकीकत हो हकीकत जैसी// इतनी आसान सी शर्तें भी क्यूं मंजूर नहीं होती?  #Kuhu


 वो दफ्तर की फाइलों में खोए थे और कहीं इंतजार होता रहा बच्चा दिनभर की कहानियां खुद को ही सुनाकर सो गया  #Kuhu


 ऐसे खर्च होते हैं दिन और वक्त गुजर जाता है, जैसे बच्चे की पेंसिल हुई छोटी और कॉपी भर गई  #Kuhu



सोचा गुल्लक से पूछें, कैसे खामोश है सिक्के संभालकर// हमसे तो खुशियों की खनक अकेले नहीं संभलती   #Kuhu


 उन बूढ़ी बुजुर्ग उँगलियो मेँ कोई ताकत बाकी न थी//  मगर सिर झुका मेरा तो कांपते हाथों ने जमाने भर की दौलत दे दी   #Kuhu


 जब कोहरा ढकता है शहर को 
जानी पहचानी सड़कों को 
 रोज दिखते घरों को,
तब रहता है खो जाने का डर 
और होती है बादलों पर चलने की खुशी
 #Kuhu
 


ख्वाबों के सौदे में भी होते हैं धोखे हजार// सब नींद चुरा लेते हैं ये एक सपना देकर   #Kuhu



Monday, March 10, 2014



 आवाज़ें





 आवाज़ें खिलखिलाती हैं होठों पर
जब बच्चे को मिल जाता है नया खिलौना 


 आवाज़ें मुस्कुराती हैं जहन में
जब छू जाती है हवा उसकी खुश्बू वाली

 आवाज़ें ठहर जाती हैं वक्त की तहों में
जब बिछड़ जाता है कोई साथी लंबे सफर का

आवाजें शामिल हो जाती हैं शोर में
जब मेले में कुछ पल को अलग होता है परिवार

 आवाज़ें टकराती हैं पहाड़ और चट्टानों से
जब तन्हा महसूस करता है कोई भीड़ में


आवाज़ें रोशनी बन जाती हैं अंधेरे में
जब खामोश हो जाता है कोई डरकर अकेले में

आवाज़ें जिस्म से उतारकर रख दी जाती हैं
जब खत्म हो जाती है किसी रिश्ते की मियाद

आवाज़ें मर जाती हैं बूढ़ी होकर, कांपते हुए
जब अनसुनी की जाती हैं लगातार, बार-बार

आवाज़ें फिर जन्मती हैं नन्ही किलकारियों में
तब सुकून देती हैं, बढ़ती हैं, पलती हैं, फैलती हैं


-कुहू